Tuesday, 23 May 2017

ईशवर तो है ईसके बजुद को समझो

                  जीवन का दर्पण

मान लो, कोई मछुआरा जाल फेंकता है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण, चारो दिशाओं में वह जाल फेंकता है। बड़ी-छोटी, चतुर सभी मछलियाँ उसके जाल में फँस जाती हैं किन्तु एक मछली जो उसके पैरों के इर्द-गिर्द घूमती है वह कभी उसकी जाल में नहीं फँसती क्योंकि मछुआरा वहाँ जाल डाल ही नहीं सकता। ऐसे ही चतुर आदमी भी माया में फँसे हैं, बुद्धू आदमी भी फँसे हैं, भोगी भी फँसे हैं और त्यागी भी फँसे हैं, विद्वान भी फँसे हैं, यक्ष भी फँसे हैं और किन्नर भी फँसे हैं, गंधर्व भी फँसे हैं और देव भी फँसे हैं, आकाशचारी भी फँसे हैं और जलचर भी फँसे हैं, भूतलवाले भी फँसे हैं और पातालवाले भी फँसे हैं... सब माया के इन तीन गुणों सत्त्व, रज और तम में से किसी-न-किसी गुण में फँसे हैं। सभी जाल में हैं लेकिन जो पूरी तरह से ईश्वर की शरण में चले गये हैं वे धनभागी इस मायाजाल से बच गये हैं।

'ईश्वर की शरण क्या है? ईश्वर क्या है? इस बात का पता चल जाये और शरण में रहने वाला कौन है' इस बात का पता चल जाये तभी ईश्वर की शरण में जाया जा सकता है। कोई कहता हैः
"मैं भगवान की शरण हूँ।"
"अच्छा ! तो तू कौन है?"
"मै हूँ मोहनभाई।"
हो गयी फिर तो भगवान की शरण....
अरे ! पहले तुम अपने को जानो कि तुम कौन हो और भगवान क्या है? तभी तो तुम्हें भगवान की शरण का पता चलेगा। भगवान की शरण मान लेना अलग बात है और जान लेना अलग बात। शुरुआत में मानी हुई शरण भी ईमानदारी की है तो उस शरण को जानने का भी सौभाग्य मिल जायेगा लेकिन मानी हुई शरण भी हम ईमानदारी से नहीं निभाते। हम कहते तो हैं कि "मैं भगवान की शरण हूँ" लेकिन अन्दर से ऐंठते रहते हैं कि 'देखो, मैंने कहा वही हुआ न!' इस प्रकार व्यक्ति अपनी परिच्छिन्नता बनाये रखता है और ऐसी बात नहीं कि केवल अच्छी मान्यताएँ ही बना कर रखता है। अहंकार तो सब प्रकार का होता है। अच्छे का भी अहंकार होता और बुरे का भी अहंकार होता है। कर्त्तापन अच्छे कर्म का भी होता है और बुरे कर्म करने का भी होता है और कर्म नहीं करने का भी होता है।

'मैं तो कुछ नहीं करता...' यह कहकर भी न करने वाला तो मौजूद ही रहता है। सब भगवान करते हैं.... मैं कुछ नहीं करता... भीतर से समझता है कि मैं नम्र हूँ। .... तो मैं तो बना ही रहा। अरे ! अपराधी को भी अहंकार होता है।

मैंने बतायी थी एक बातः
जेल में कोई नया कैदी आया। सिपाही ने उसे एक कोठरी खोलकर अन्दर कर दिया। नया कैदी जैसे ही उस कोठरी में प्रविष्ट हुआ तो पुराना कैदी बोलाः
"कितने महीने की सजा है?"
"छः महीने की।"
"तू तो नवसिखिया है। दरवाजे पर ही अपना बिस्तर लगा। हम बीस साल की सजा वाले बैठे हैं। अच्छा... यह बता, डाका कितने का डाला?"
"पाँच हजार का।"
"इतना तो हमारे बच्चे भी डाल लेते हैं। हमने तो दो लाख का डाका डाला है। मैं तो यहाँ तीसरी बार आया हूँ। मैंने तो इसे अपना घर ही बना लिया है।"
इस प्रकार बुरे कर्म का भी अहंकार मौजूद रहता है। माया सभी को अपने जाल में फँसा लेती है।

चिलम पीकर कोई बैठा रहे और कहेः 'तीन घण्टे हम भजन में रहे....' यह तामसिक माया है। दान पुण्य करके कोई कहेः 'हमने लाख रुपयों का दान करके लोगों का भला किया.. यह राजसी माया है। कोई कहेः 'इष्टदेव ही सब कुछ करवाते हैं... इष्टदेव के लिए सब कुछ हुआ है... मैं तो कुछ नहीं हूँ... अपने से वह जितना करवाये उतना अच्छा....' यह सात्त्विक माया है। माया तामसिक हो, राजसिक हो या सात्त्विक, है तो माया ही। इसीलिए भगवान कहते हैं-

यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि माया मनोमयम्।।

'मन से, वाणी से, आँखों से, नेत्रों आदि से जो भी ग्रहण होता है वह सब नश्वर है, मनोमय, मायामात्र है ऐसा जानो।

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Ajay Singh
9675300547

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