जय श्रीराधे भक्तों अक्सर हमसे लोग पूछते हैं कि हम हमेशा राधे राधे ही क्यो बोलतें आज उन सबकों हमारी तरफ से भी इस लीला में जवाब मिल जाएगा
तीनों लोकों में राधा की स्तुति से देवर्षि नारद खीझ गए थे। उनकी शिकायत थी कि वह तो कृष्ण से अथाह प्रेम करते हैं फिर उनका नाम कोई क्यों नहीं ले !
हर भक्त ‘राधे-राधे’ क्यों करता रहता है। वह अपनी यह व्यथा लेकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे।
नारदजी ने देखा कि श्रीकृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देवर्षि के हृदय में भी टीस उठी।
उन्होंने पूछा, ‘भगवन! क्या इस सिर दर्द का कोई उपचार है। मेरे हृदय के रक्त से यह दर्द शांत हो जाए तो मैं अपना रक्त दान कर सकता हूं।’ श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया,
‘नारदजी, मुझे किसी के रक्त की आवश्यकता नहीं है। मेरा कोई भक्त अपना चरणामृत यानी अपने पांव धोकर पिला दे, तो मेरा दर्द शांत हो सकता है।’
नारद ने मन में सोचा, ‘भक्त का चरणामृत, वह भी भगवान के श्रीमुख में। ऐसा करने वाला तो घोर नरक का भागी बनेगा। भला यह सब जानते हुए नरक का भागी बनने को कौन तैयार हो ?’
श्रीकृष्ण ने नारद से कहा कि वह रुक्मिणी के पास जाकर सारा हाल सुनाएं तो संभवत: रुक्मिणी इसके लिए तैयार हो जाएं।
नारदजी रुक्मिणी के पास गए। उन्होंने रुक्मिणी को सारा वृत्तांत सुनाया तो रुक्मिणी बोलीं, ‘नहीं, नहीं! देवर्षि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।’
नारद ने लौटकर रुक्मिणी की बात श्रीकृष्ण के पास रख दी। अब श्रीकृष्ण ने उन्हें राधा के पास भेजा। राधा ने जैसे ही सुना, तत्काल एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने दोनों पैर डुबोए। फिर वह नारद से बोली,
‘देवर्षि, इसे तत्काल श्रीकृष्ण के पास ले जाइए। मैं जानती हूं कि भगवान को अपने पांव धोकर पिलाने से मुझे रौरव नामक नरक में भी ठौर नहीं मिलेगा।
लेक़िन अपने प्रियतम के सुख के लिए मैं अनंत युगों तक नरक की यातना भोगने को तैयार हूं।’ अब देवर्षि समझ गए कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम के स्तुतिगान क्यों हो रहे हैं।
उन्होंने भी अपनी वीणा उठाई और राधा की स्तुति गाने लगे। और यही कारण है हम भी अपने प्यारे की खुशी के लिए सिर्फ राधा नाम की रटना लगाते हैं
"श्री" का अर्थ है "शक्ति" अर्थात "राधा जी" कृष्ण यदि शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं। कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र हैं तो राधा तरंग हैं, कृष्ण पुष्प हैं तो राधा उस पुष्प कि सुगंध हैं।
राधा जी कृष्ण जी कि अल्हादिनी शक्ति हैं। वह दोनों एक दूसरे से अलग हैं ही नहीं। ठीक वैसे जैसे शिव और हरि एक ही हैं | भक्तों के लिए वे अलग-अलग रूप धारण करते हैं, अलग-अलग लीलाएं करते हैं।
जहाँ कोई आकांक्षा नहीं, जहाँ कोई वासना नहीं, जहाँ अहम् का सर्वथा विस्मरण - समर्पण है, जहाँ केवल प्रेमास्पद के सुख की स्मृति है और कुछ भी नहीं - यह एक विचित्र धारा है और इस धारा का मूर्तिमान रूप ही श्री राधा है
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