*हरिनाम जप किस प्रकार करें*
जप करने के समय स्मरण रखने वाली कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बातें :
पवित्र हरिनाम को भी अर्च-विग्रह और पवित्र धाम के समान ही गुणनिधि समझना ।
जप भी राधा-कृष्ण की पूजा है, इसलिए हमें पूर्ण उद्यम के साथ जप करना चाहिए ।
भगवान कृष्ण हमारे भाव और प्रयासों के अनुरूप ही आदान-प्रदान करते हैं । यह हम में जितना अधिक होगा, भगवान भी उतना अधिक प्रतिदान करेंगे । भगवान का प्रतिदान वास्तव में कई गुना अधिक होता है क्योंकि इस सम्बन्ध को प्रगाढ़ करने के लिए वे हमसे कही अधिक आतुर रहते हैं ।
जप कोई प्रक्रिया नहीं है यह एक सम्बन्ध है । जब हम जप करते हैं तो हम भगवान से टूटे हुए सम्बन्ध को ठीक कर रहे होते हैं । इसलिए जब हम भगवान को पुकारते हैं तो पश्चाताप और समर्पण भाव से पुकारना चाहिए । समर्पण भरी पुकार में इस बात का पश्चाताप हो कि भगवान से विमुख होकर हमने कितने जन्म यूँही व्यर्थ गवाँ दिए ।
अपराध-सहित जप और अपराध-रहित जप में मात्र हमारे सच्चे प्रयास का अंतर है । गंभीर प्रयास ही प्रेम-भक्ति की सीढ़ी है । जब हम अपराधों से बचने का निरंतर प्रयास करते हैं तो वे स्वतः ही समाप्त होने लगते है ।
मालाओं की गिनती से अधिक महत्वपूर्ण उनकी गुणवत्ता है । अगर गुणवत्ता अच्छी है तो गिनती स्वतः ही बढ़ जाएगी । अगर गिनती अधिक है तो कई बार गुणवत्ता में गिरावट आती है ।
जप करते समय कभी भी यह विचार मन में न लाएं की “मुझे करना पड़ रहा है”, बल्कि विचार ऐसे होने चाहिए की “मैं जप करना चाहता हूँ”। अगर आपको यह लगे की जप “करना पड़ रहा है” तो बेहतर होगा कि उस समय आप जप ना ही करें । भगवान कृष्ण से सम्बन्ध बनाने के लिए कोई आपको बाध्य न करे आप स्वयं ही इस सम्बन्ध को बढाने के लिए आतुर होने चाहिए, तभी भगवान प्रतिदान करेंगे ।
जब आप जप कर रहे हों तब केवल जप ही करें । मन का जप में उपस्थित रहना ही जप के प्रति न्याय है । अगर आप सचमुच गंभीर होंगे तो वातावरण स्वतः ही अनुकूल बन जायेगा और आपको जप के लिए अधिक समय भी मिलेगा ।
जप ही आपका दिनभर में सबसे प्रिय कार्य हो । जब समय मिले तब जप कर लिया । और जब जप कर रहे हों तो सम्पूर्ण संसार प्रतीक्षा कर सकता है ।
माया और कृष्ण, दोनों एक ही समय पर नहीं पाये जा सकते । जब हम भौतिक विकर्षणों को अधिक महत्त्व देते हैं तब भगवान कृष्ण हमारे जीवन और जप दोनों से विलुप्त हो जाते हैं!
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"हरि ॐ "